डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला।
चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म 1934 में चमोली जिले के गोपेश्वर में हुआ. उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रुद्रप्रयाग व पौड़ी से प्राप्त की. परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने की वजह से स्नातक की पढ़ाई छोड़ दी और परिवार की आवश्यकता के अनुरूप जी.एम.ओ.यू में क्लर्क की नौकरी करने लगे. 1956 में भट्ट गांधीवादी विचारक जयप्रकाश नारायण के प्रभाव में आए और कुछ युवा लोगों के साथ मिलकर गांवों के आर्थिक विकास व शराब के खिलाफ उत्तराखण्ड (तब के उत्तरप्रदेश) में सर्वोदय आंदोलन प्रारम्भ किया.1960 में चंडी प्रसाद भट्ट ने अपनी क्लर्क की नौकरी छोड़कर पूरा समय सर्वोदय आंदोलन के कार्यों में देने का निर्णय लिया. 1964 में गोपेश्वर के ग्रामीण लोगों को एकजुट कर “दसौली ग्राम स्वराज मंडल” की नींव चंडी प्रसाद भट्ट ने रखी, जिसका कार्य गांव के लोगों को जंगल पर आधारित फैक्ट्रियों में नौकरी दिलवाना व शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना था.1973 में चंडी प्रसाद भट्ट ने गांवों के लोगों को इकट्ठा कर चिपको आंदोलन के लिए प्रेरित किया, जिसकी मुख्य मांग 1917 से चली आ रही जंगल नीतियों का संशोधन करना था. जंगल के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने व गांव के लोगों को एकजुट कर उनकी जरूरतों पर विचार विमर्श के लिए पर्यावरण-विकास कैंपों की स्थापना की गई. यह आंदोलन जंगल में मानवीय जरूरतों के संरक्षण का अहम साधन बना तथा इस आंदोलन ने न केवल सबको शिक्षित किया बल्कि एक मजबूत नीति के क्रियान्वयन का भी रूप प्रेषित किया. चंडी प्रसाद भट्ट को 2003 में “नेशनल फारेस्ट कमीशन” का सदस्य नियुक्त किया गया, जिसने जंगल प्रबन्धन के सभी नियमों, नीतियों व कानूनों की समीक्षा की व अपनी विस्तृत रिपोर्ट 2005 में सरकार को सौंप दी. उत्तराखंड में चिपको आंदोलन के जनक 88 वर्षीय चंडीप्रसाद भट्ट उन गिने चुने लोगों में से हैं, जो हिमालय पर मंडरा रहे खतरों से लगातार आगाह करते रहे हैं। उन्होंने गोरा देवी के साथ रैणी गांव में 1974 में जंगलों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया था हम लोग इससे पहले ही पेड़ों को बचाने की मुहिम चला रहे थे और चिपको आंदोलन की शुरुआत कर चुके थे। इसे देखते हुए हयात सिंह रावत ने हमें रीणी गांव के बारे में बताया। इस गांव में जनजातीय लोग रहते हैं। हम लोगों ने वहां की यात्रा की तो पता चला कि वह इलाका बहुत संवदेनशील है, क्योंकि वहां सीधे खड़े पहाड़ हैं और जहां पेड़ कटने वाले थे, वो बहुत कमजोर इलाका था। साथ ही, वह इलाका स्थानीय लोगों के लिए बहुत महत्व रखता था। लोगों को वहां से जंगली सब्जी, जंगली फल, अखरोट आदि कई चीजें मिलती थी।इससे पहले 1968 में वहां एक भूस्खलन हुआ था और एक झील बनी थी। यह भूस्खलन ठीक उसी जगह हुआ था, जहां अभी 7 फरवरी को पुल बह गया है। बाद में वहां कई पर्यावरणविद पहुंचे थे। हमने वहां चार-पांच दिन की यात्रा की। हमने पूरी परिस्थितियां देखी और उसके बाद यह कहा कि यहां पेड़ काटे गए तो इस तरह की घटनाएं दोबारा होंगी। उस समय तक ग्रामीण महिलाएं हमारे साथ नहीं जुड़ी थी, लेकिन जब 1974 में जंगलात के लोग पेड़ काटने पहुंच गए। वन विभाग ने ऐसी परिस्थितियां बना दी थी कि मैं वहां से काफी दूर था। महिलाओं को यह पता था कि अगर पेड़ कटेंगे तो भूस्खलन होगा और हमारे बदर (खेती आदि) बह जाएंगे। महिलाओं को लगा कि अगर अब पेड़ कट गए तो उन्हें दोबारा नहीं लगाया जा सकता, इसलिए उन्हें ही कुछ करना होगा। गांव की महिला मंगल दल में 26-27 महिलाएं थी, जिसका नेतृत्व गौरा देवी कर रही थी ने पेड़ों से चिपकना शुरू कर दिया। मजबूरन, वन विभाग को पेड़ काटने का इरादा छोड़ना पड़ा। इसके बाद हम लगातार वहां आते-जाते रहे और लोगों को जागरूक करते रहे। इसका असर पूरे उत्तराखंड में हुआ और लोगों ने वन विभाग को आगाह करना शुरू किया कि अगर पेड़ काटेंगे तो वे चिपक जाएंगे।इसके बाद सरकार ने बात मान ली और पूरी अलकनंदा घाटी में पेड़ काटने को प्रतिबंधित कर दिया। एक कमेटी बनाई गई, जिसमें मैं भी शामिल था। जब हमने कहा कि दिल्ली में बैठकर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता, जिसके बाद एक सब कमेटी बनाई गई, जिसने व्यापक सर्वेक्षण शुरू किया। और 1977-78 में इस इसे पूरे इलाके को प्रतिबंधित कर दिया गया। 1974 से ही आंदोलन की वजह से सरकार पेड़ नहीं काट पा रही थी। लेकिन कमेटी की सिफारिशों के बाद पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।1980 के बाद पूरे उत्तराखंड में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी गई थी। कमेटी ने सिफारिश की थी कि केवल रैणी ही नहीं, बल्कि पूरा अलकनंदा का इलाका जहां ग्लेशियर से नदियां निकलती हैं से पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगाया जाए।कुछ साल बाद वन विभाग ने चुपके से 13 मेगावाट क्षमता वाली ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी। यह प्रोजेक्ट ठीक नेशनल पार्क के मुहाने पर बनाया गया। जब प्रोजेक्ट को मंजूरी दिए जाने की जानकारी मुझे पता चली तो पहले सरकारी अधिकारियों से बात की और उसके बाद उच्चतम न्यायालय की हाई पावर कमेटी को इसकी शिकायत की। उस समय पर्यावरण मंत्री भी पत्र लिखा। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को पत्र लिखा कि यह इलाका बहुत संवदेनशील है, यहां इस तरह का प्रोजेक्ट नहीं बनाना चाहिए। रैणी ही नहीं, बल्कि कुछ और प्रोजेक्ट्स की जानकारी भी सरकार को दी, जो पहाड़ की दृष्टि से उचित नहीं थे। पर्यावरण मंत्री ने आश्वासन दिया कि प्रोजेक्ट नहीं बनेंगे। कुछ प्रोजेक्ट बंद भी हो गए।मुख्य सवाल यह है कि स्थानीय लोगों को पानी का पाइप बिछानी हो या रास्ता बनाना हो तो वन विभाग वाले रोक देते हैं। लेकिन नेशनल पार्क के मुहाने पर प्रोजेक्ट बनाने की स्वीकृति कैसे मिल गई। हम लोग पहले से ही यह मुद्दा उठा रहे थे कि यहां किसी तरह का निर्माण भी आपदा का कारण बन सकता है और वही हुआ। इस घटना से बड़ा सवाल उठ रहा हैं। किस की मिलीभगत से इस प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल गई। यहां 4,000 से 5,000 मीटर ऊंचे पहाड़ हैं।यह घटना जहां हुई, वहां तो स्थायी बसावट है, लेकिन उससे ऊपर का इलाके में लोग 6 माह रहते हैं और 6 माह के लिए नीचे आ जाते हैं। दरअसल, पूरे हिमालयी क्षेत्र में व्यापक अध्ययन का अभाव है। यह अध्ययन लगातार होना चाहिए कि ग्लेशियरों की स्थिति क्या है, क्या ये ग्लेश्यिर फट सकते हैं। क्या वहां झीलें बन गई हैं? मैं इस बारे में सालों से अपनी बात सरकार तक पहुंचा रहा हूं, लेकिन कोई बदलाव नहीं हुआ। मनमोहन सरकार में भी यह मुद्दा उठाया था और इस सरकार में भी यह बात कह रहा हूं। न केवल रैणी, ऋषिगंगा की बात है, बल्कि हिमालयी राज्यों में ऊपर के इलाकों का विज्ञान सम्मत हर वर्ष नहीं तो दो तीन साल में अध्ययन और शोध होने चाहिए। वर्ना तो बड़े-बड़े संस्थान हमारे लिए हाथी साबित हो रहे हैं। इस बारे में जो भी ज्ञान है, उसके बारे में स्थानीय लोगों और स्थानीय प्रशासन को बताना चाहिए। यदि वहां ग्लेशियर पिघल रहे हैं या कोई बदलाव आ रहा है तो उसकी जानकारी स्थानीय लोगों को होनी चाहिए। शोध रिपोर्ट से क्या फायदा।वर्ना तो चमोली आपदा एक शुरुआत भर है। चार धाम परियोजना चल रही है, जो काफी नुकसान पहुंचा सकती है। नदियों में मलवा डाला जा रहा है, जिससे नदियों का स्तर ऊंचा हो रहा है। ग्लेशियर पीछे सरक रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का असर लगातार बढ़ रहा है। हमने 2013 की केदारनाथ आपदा से सबक नहीं लिया। चमोली आपदा को भी कुछ दिन याद रखा जाएगा, उसके बाद भुला दिया जाएगा और फिर से ये काम शुरू हो जाएंगे। राज्य में बांधो का निर्माण तात्कालिक मुनाफा कमाने के लिए किया गया. बड़े बांध उत्तराखंड जैसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के लिए खतरा है. हम बहुत ही पहले से बड़े बांधों के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं. अब समय आ गया है जब हमें वैकल्पिक ऊर्जा पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये. ये बड़े बांध पहाडों पर दबाब बढा रहे हैं. जिसके भयानक परिणाम भविष्य में देखने को मिल सकते हैं.पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती’ चंडी प्रसाद भट्ट की बेहतरीन यात्राओं का संग्रह है। 23 जून 1934 को उत्तराखंड के गोपेश्वर में जन्मे चंडी प्रसाद भट्ट सातवें दशक के प्रारंभ में सर्वोदयी विचार-धारा के संपर्क में आए। वनों का विनाश रोकने के लिए उन्होंने ग्रामवासियों को संगठित कर 1973 से चिपको आंदोलन आरंभ कर वनों का कटान रुकवा।उनको 1983 में अरकांसस ट्रैवलर्स सम्मान, लिटिल रॉक के मेयर द्वारा सम्मानित नागरिक सम्मान, 1986 में भारत के माननीय राष्ट्रपति महोदय द्वारा पद्मश्री सम्मान, 1987 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा ग्लोबल 500 सम्मान, 1997 में कैलिफोर्निया (अमेरिका) में प्रवासी भारतीयों द्वारा इंडियन फॉर कलेक्टिव एक्शन सम्मान, 2005 में पद्म भूषण सम्मान, 2008 में डॉक्टर ऑफ साईंस उपाधि, 2010 रियल हिरोज लाईफटाईम एचीवमेंट अवार्ड तथा रिलाईंस इंडस्ट्रीज द्वारा सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।चंडीप्रसाद भट्ट भारत के गांधीवादी पर्यावरणवादी और समाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने सन् 1964 में गोपेश्वर में ‘दशोली ग्राम स्वराज्य संघ’ की स्थापना की जो कालान्तर में चिपको आंदोलन की मातृ-संस्था बनी। इस कार्य के लिये वे 1982 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित हुए। हिमालय नाजुक पर्वत है और टूटना बनना इसके स्वभाव में है। उन्होंने कहा, ‘भूकंप, हिमस्खलन, भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियर, तालों का टूटना और नदियों का अवरूद्ध होना आदि इसके अस्तित्व से जुड़े हुए हैं।’वर्ष 2005 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण पुरस्कार दिया। वही साल 2013 में उन्हें गांधी शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उत्तराखंड के लोगों को पहाड़-प्रकृति से प्यार है, इसी समृद्ध परंपरा को निभा रहे हैं मशहूर पर्यावरणविद और समाजसेवी चंडी प्रसाद भट्ट। चंडी प्रसाद भट्ट किसी पहचान के मोहताज नहीं है, अद्भुत जीवट के धनी चंडी प्रसाद भट्ट गांधी के विचार को व्यावहारिक रूप में आगे बढ़ाने में एक सफल जन नेता के रूप में जाने जाते हैं. ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में सौम्यतम अहिंसक प्रतिकार के द्वारा वृक्षों एवं पर्यावरण के अंतर्संबंधों को सशक्तत ढंग से उभार कर उन्होंने संपूर्ण विश्व को जहां एक ओर पर्यावरण के प्रति सचेत एवं संवेदनशील बनाने का अभिनव प्रयोग किया, वहीं प्रतिकार की सौम्यतम पद्धति को सफलता पूर्वक व्यवहार में उतार कर भी दिखाया. ‘पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती’ चंडी प्रसाद भट्ट की बेहतरीन यात्राओं का संग्रह है. को शत शत नमन! अभिवंदन!लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।