डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हरेला एक हिंदू त्यौहार है जो मूल रूप से उत्तराखण्ड के कुमाऊं में मनाया जाता है । हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है। पहला चैत्र माह में जब पहले दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है। दूसरा श्रावण माह में सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। तीसरा आश्विन माह में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है। चैत्र व आश्विन माह में बोया जाने वाला हरेला मौसम के बदलाव के सूचक है। श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता है। जो कि एक पर्व के रूप में मनाया जाता है। सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूं, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। इसे पूजा जाता है और परिवार के सभी सदस्य अपने माथे में लेकर सम्मान करते हैं।उत्तराखंड आदिकाल से अपनी परम्पराओं और रिवाजो द्वारा प्रकृति प्रेम और प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और प्रकृति की रक्षा की सद्भावना को दर्शाता आया है। इसीलिये उत्तराखंड को देवभूमी, और प्रकृति प्रदेश भी कहते हैं। प्रकृति को समर्पित उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला त्योहार या हरेला पर्व प्रत्येक वर्ष कर्क संक्रांति को, श्रावण मास के पहले दिन यह त्योहार मनाया जाता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 2022 में हरेला त्योहार 16 जुलाई को मनाया जाएगा। और 2022 में हरेला त्योहार के ठीक 10 दिन पहले यानी 07 जुलाई 2022 गुरुवार के दिन हरेला बोया जाएगा। कई लोग 11 दिन का हरेला बोते हैं। 11 दिन के हिसाब से 6जुलाई बुधवार को बोया जायेगा।
उत्तराखंड की राज्य सरकार ने 16 जुलाई 2022 को हरेला पर्व का सार्वजनिक अवकाश घोषित किया है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में विशेष रूप से मनाया जाने वाला यह त्यौहार, प्रकृति प्रेम के साथ साथ कृषि विज्ञान को भी समर्पित है। 10 दिन की प्रक्रिया में मिश्रित अनाज को देवस्थान में उगा कर, कर्क संक्रांति के दिन हरेला काट कर यह त्योहार मनाया जाता है। जिस प्रकार मकर संक्रांति से सूर्य भगवान उत्तरायण हो जाते हैं, औऱ दिन बढ़ने लगते हैं, वैसे ही कर्क संक्रांति से सूर्य भगवान दक्षिणायन हो जाते हैं। और कहा जाता है, की इस दिन से दिन रत्ती भर घटने लगते है। और रातें बड़ी होती जाती हैं।हरेला उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में प्रमुखता से मनाया जाता है। इसके साथ -साथ उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में यह त्यौहार एक कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। गढवाली परम्परा में कही कही अपने कुल देवता के मंदिर के सामने मिट्टी डालकर , केवल जौ उगाई जाती है। इसे बोने का कार्य महिलाएं नहीं केवल पुरुष करते हैं। वो भी वही पुरुष करते हैं, जिनका यज्ञोपवीत हो चुका होता है। चमोली में यह त्यौहार हरियाली देवी की पूजा के निमित्त मनाया जाता है। यहाँ हरियाली देवी के प्रांगण में जौ उगाई जाती है।और पूजन के बाद स्वयं धारण करते हैं।हरेले की शुभकामनाएं देकर बुजुर्ग बच्चो को आशीर्वाद देते हैं। हरेला उत्तराखण्डी संस्कृति का प्रमुख लोकपर्व है। यह उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक पर्वों में से एक है। हरेला त्यौहार प्रकृति से प्रेम एवं नव फसल की खुशियों व आपसी प्रेम का प्रतीक त्यौहार है।इस त्यौहार पर वृक्षारोपण को विशेष महत्व दिया जाता है। इस दिन के प्रति यह धारणा है, कि हरेले पर्व पर लगाया गया पौधा या किसी पेड़ की लता या टहनी भी जमीन में रोप दे तो वह भी जड़ पकड़ लेती है। और वास्तव में ऐसा ही होता है। मूलतः यह पर्यावरण के प्रति जागरूक उत्तराखण्डी जनता का वृक्षारोपण के द्वारा वनस्पति की रक्षा और विकास अन्यतम लक्ष्य रहा होगा। जिसे एक मान्य त्यौहार का रूप दे दिया गया होगा। हरेले के दिन पूरे प्रदेश में वृक्षारोपण का कार्यक्रम बड़े जोर शोरों से चलाया जाता है। सरकार और जनता इसमे खुल कर भागीदारी करती हैं।हरेला पर्व राज्य सरकार इस बार धूमधाम से मनाने जा रही है। मुख्यमंत्री ने भी हरेला पर्व पर विशेष तौर पर अधिक से अधिक फलदार पेड़ लगाने के निर्देश विभागीय अधिकारियों को दिए हैं। इस वर्ष हरेला पर्व 16 जुलाई को मनाया जाएगा। हरेला पर्व के साथ ही सावन का महीना शुरू हो जाएगा।हरेला पर्व पर्यावरण संरक्षण का त्यौहार है। ऋग्वेद में भी हरेला का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में लिखा गया है कि इस त्यौहार को मनाने से समाज कल्याण की भावना विकसित होती है।
हरेला का अर्थ हरियाली से है इस दिन सुख समृद्धि और ऐश्वर्य की कामना की जाती है। बीते कुछ सालों से सरकारें हरेला पर्व को धूमधाम से मना रही है। साथ ही इसका आयोजन बड़े स्तर पर किया जा रहा है। जिससे आने वाली पीढ़ी को पर्यावरण के प्रति जागरुक किया जा सकेहरेला पर्व पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक है। इस पर्व से मौसम को पौधरोपण के लिए उपयुक्त माना जाता है। हरेला बोने के लिए उसी खेत की मिट्टी लाई जाती है जिसमें उचित पौधों के रोपण और अच्छी फसल का परीक्षण हो सके। सात या पांच प्रकार का अनाज बोया जाता है जो अनुकूल मृदा और मौसम चक्र का आभास कराता है। हरेला पर्व पौधरोपण, मृदा परीक्षण और मौसम चक्र का भी द्योतक है, लेकिन आज के दौर में वनों का जिस तरह दोहन हो रहा है, यह हमारी इस परंपरा पर कुठाराघात भी है।उत्तराखंड राज्य का गठन जिन खुशहाली के सपनों को पूरा करने के लिए किया गया था वे सपने अब तक अधूरे ही रहे हैं। हिमालय क्षेत्र के तीन प्रमुख राज्यों – जम्मू कश्मीर, हिमाचलप्रदेश और उत्तराखंड में से उत्तराखंड राज्य आज कृषि और सिंचाई के संसाधनों की दृष्टि से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ राज्य है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां पलायन सबसे ज्यादा हुआ है। उसका एक मुख्य कारण है राज्य सरकारों द्वारा जल, जमीन से जुड़े कृषि के संसाधनों के प्रति घोर उपेक्षा भाव रखना। यहां जिस पार्टी की भी सरकार बनी है कृषिपरक रोजगार के लिए उसने कुछ नहीं किया। उत्तराखंड सरकार द्वारा लोक संस्कृति के विरासतस्वरूप इस कृषिवैज्ञानिक पर्व हरेले का संज्ञान लेते हुए राज्य की खुशहाली से जुड़ी कृषि और वानिकी योजनाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। क्योंकि बरसात का यह मौसम ही राज्य में कृषि और वानिकी को समृद्ध बनाने का अनुकूल मौसम हो सकता है। वर्षाऋतु में मनाए जाने वाले इस त्यौहार के अवसर पर सरकार बंजर खेती को उपजाऊ बनाने या उन खेतों में कृषिवैज्ञानिकों की मदद से औषधीय वृक्षों और जड़ीबूटियों के रोपण की योजनाओं को प्रोत्साहित कर सकती है। जल वैज्ञानिकों के परामर्श पर वाटर हार्वेस्टिंग की वैज्ञानिक तकनीकों से ग्रामीण जनों को अवगत करा सकती है और राज्य में जलसंकट की समस्या का समाधान निकाल सकती है। इन योजनाओं के कार्यान्वयन द्वारा ही विरासत में मिली हरेला महोत्सव की गौरवशाली मौसमवैज्ञानिक और कृषिवैज्ञानिक परंपराओं को विशेष रूप से रेखांकित किया जा सकता है और इन्हीं योजनाओं के तहत उत्तराखंड राज्य में हरियाली और खुशहाली लाई जा सकती है,लोगो को रोजगार के अवसर मुहय्या कराए जा सकते हैं और पलायन को भी रोका जा सकता है। कुल 15 लाख पौधरोपण करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इनमें 50 फीसद फलदार पौध लगाए जाएंगे। इस कार्य में गुणवत्ता से समझौता नहीं होगा। पैसे की कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। वन विभाग टेक्निकल जिम्मेदारी पर काम करेगा। इसमें वन पंचायत के साथ,विभिन्न विभाग,स्कूल,उच्च शिक्षा के साथ स्थानीय लोगों को शामिल किया जाएगा। इसके लिए जिले के जिलाधिकारियों के माध्यम से विभागों से समन्वय बनाया जाएगा। इस संबंध में सभी डीएफओ को आवश्यक निर्देश दिए गए हैं।मंत्री ने कहा कि फलदार पौध लगाने से लोगों को आजीविका भी मिलेगा और रोजगार की संभावनाएं बढ़ेंगी। इसे ध्यान में रखते हुए पहली बार हरेला पर फलदार पौध लगाने पर फोकस किया जा रहा है।इस बार हरेला पर्व पर वन विभाग जलवायु और मिट्टी को ध्यान में रखते हुए पौध का चयन किया जाएगा। किस क्षेत्र में कौन सा पौध लग सकते हैं। इसके लिए योजना बनाई जा रही है। पौध को लगाना और उसे संरक्षण करना भी जिम्मेदारी होगी। ट्री प्रोटेक्शन एक्ट में संशोधन किया जाएगा, जिससे पौधराेपण में गति मिल सके। इस नियम के तहत व्यक्ति की ओर से लगाए गए पेड़ों के कटान में कोई उलझ न आए। इस पर काम किया जाएगा ताकि लोग अधिक से अधिक पेड़ लगा सकें। इस दौरान- ‘जी रया जागि रया, आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया, स्यावै क जस बुद्धि, सूरज जस तराण है जौ..’ कहा जाता है। हरेला कृषि प्रधान त्योहार है। इसमें जो बीज डाले जाते हैं वो सीजन में होने वाले अन्न के प्रतीक हैं।इन बीजों को धन-धान्य और समृद्धि के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। ‘जी रे जाग रे’ के रूप में जो भी कामनाएं की जाती हैं वो आज की अपेक्षाओं के समान बाजारवाद में रची-बसी नहीं होती। आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार का आशीर्वाद हमें सीधे तौर पर प्रकृति के साथ जोड़ता है। हरेले का त्योहार प्रकृति से सीखने और उसके जैसे बनने के लिए प्रेरित करता है।जहां आज बाजारवाद और पूंजीवादी संस्कृति मानव को प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर रही है। जो प्रकृति के करीब है उसे जंगली, बर्बर और असभ्य माना जाने लगा है। वहीं, हरेला प्रकृति और मानव के बीच के संबंधों को दर्शाता है। पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन के लिहाज से उत्तराखंड अतिरिक्त रूप से संवेदनशील है और इसका खास तौर पर ध्यान रखे जाने की जरूरत है।लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।