डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
बेडू पाको बारोमासा गीत उत्तराखंड की पहचान है। या यु कहिये यह गीत उत्तराखंड का पहला अघोषित राज्य गीत है। जब कोई उत्तराखंड का निवासी कही अपनी पहचान बताता है तो , बेडू पाको बारो मासा गीत से स्वयं को जोड़ कर खुद का परिचय देता है। अल्मोड़े के रानीधार में जन्में मोहन उप्रेती का जन्म वर्ष 1928 है. लोकगायक मोहन सिंह रीठागाड़ी को उन्होंने अपना गुरु माना है. अपने जीवन काल में मोहन उप्रेती ने 22 देशों की यात्रा की और सभी जगह कुमाऊं की संस्कृति का प्रचार प्रसार किया. अपने एक साक्षात्कार में अफ्रीका के किसी रेगिस्तान में कुमाऊनी होली गाने को वह खूब याद करते हैं. संगीत निर्देशन के लिये मोहन उप्रेती को 1981 में भारतीय नाट्य संघ ने और लोक नृत्यों के लिये संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1985 में पुरस्कृत किया. पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति को बुलंदियों तक पहुंचाने वाले मोहन उप्रेती ने अजुवा-बफौल ,राजुला-मालूशाही, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, रसिक-रमौल जैसी अनेक लोक कथाओं का मंचन किया. आज उत्तराखंड के कुमाऊँनी लोकगीत ‘बेडू पाको बारामासा’ के जानेमाने गायक मोहन उप्रेती की पुण्यतिथि है। बेडू पाको बारामासा गीत के लेखक एवं रचयिता बृजेन्द्र लाल शाह के साथ उप्रेती जी ने सर्वप्रथम 1952 में राजकीय इंटर कालेज नैनीताल के मंच में इस गीत को गाया था। बाद में इसे दिल्ली में तीन मूर्ती भवन में एक अंतरराष्ट्रीय सभा के मंच पर भी गाया गया। तभी से इसको प्रसिद्धी मिली। बेडु पाको’ इतना मशहूर हुआ कि इसे कुमाऊँ रेजिमेंट का ऑफ़िशियल सॉंग भी बनाया गया और गढ़वाल राइफ़ल्स का बैंड भी अक्सर इस गाने की धुन बजाता सुनाई देता है.. अक्सर उत्तराखंड और पहाड़ का ज़िक्र आते ही कई मशहूर हस्तियॉं भी ‘बेड़ु पाको’ गुनगुनाने लगती हैं। चाहे वह पहाड़ी जवानों के बीच अनुष्का शर्मा हों, मंच पर गाती उवर्शी रौतेला या किसी कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन जैसे मशहूर कलाकार। कई विदेशी मंचों पर भी बेड़ुपाको विदेशी उच्चारणों में गाया जाता सुनाई देता है।लोक गीत कैसे एक भूगोल और उसके लोक की पहचान बन जाते हैं, ‘बेड़ु पाको’ इसकी एक बानगी है। 1955 का साल था. दुनिया में शीतयुद्ध की हवा गर्मा रही थी. भारत के दौरे पर सोवियत रूस के दो बड़े नेता आये और भारत और सोवियत रूस के बीच संबंधों का एक नया अध्याय लिखा जाना था. रूस से आये दो मेहमानों ख्रुश्चेव और बुल्गानिन का भारत में भव्य स्वागत हुआ. अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने भारी भीड़ के बीच भारत में कुश्ती से लेकर कब्बडी तक के खेल देखे. अब बारी भारत की सांस्कृतिक झलकियों की थी. शाम का समय था और तीन मूर्ति के सभागार में एक गीत ने ऐसा समां बांधा की हर कोई थिरकने को मजबूर था गीत के बोल थे- बेडू पाको बारामासा.1955 की इस शाम के बाद सबकुछ कुमाऊनी संगीत के स्वर्णिम इतिहास में दर्ज है. स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी द्वारा गाये गीत से ली गई हैं। अभी तक इस गीत के कई संस्करण बन गए हैं। कई गायको ने इसके अलग अलग वर्जन भी बना दिए गए हैं। बेडु पको गीत मूलतः कुमाऊनी लोक गीत है। अब इसका गढ़वाली वर्जन भी उपलब्ध है। बेडू पाको गीत के रचियता स्व श्री बिजेंद्र लाल शाह जी हैं। और इसका संगीत स्व श्री मोहन उप्रेती और बृजमोहन शाह ने बनाया था। इस प्रसिद्ध उत्तरांचली लोक गीत को पहली बार 1952 में राजकीय इंटर कालेज नैनीताल में गाया गया था। तत्पश्यात दिल्ली की एक अंतर्राष्ट्रीय सभा में इसकी पहली रिकॉर्डिंग सम्मान में बजाई गई। इसकी रिकॉर्डिंग hmv द्वारा बनाई गई थी। कहते है , भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी का प्रिय गीत था।कहते हैं नेहरू जी ने मोहन उप्रेती जी को ‘बेडू पाको बॉय ‘ का नाम दिया था। अभी तक के सभी गीतों में ,स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी और स्वर्गीय नईमा खान उप्रेती जी द्वारा गाया हुवा गीत माना जाता है। भारतीय लोक संगीत के इतिहास में कुमाऊनी लोकगीत को मजबूती के साथ दर्ज कराने वाले नायक थे मोहन उप्रेती.जी सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लोक संगीत के मर्मज्ञ थे। कुमांउनी संस्कृति, लोकगाथों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने में इनकी अहम भूमिका रही। बर्ष 1949 में एमए करने के बाद 1952 तक अल्मोड़ा इण्टर कालेज में इतिहास के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। 1951 में ‘लोक कलाकार संघ’ की स्थापना की। 1950 से 1962 तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिये भी कार्य किया। इस बीच पर्वतीय संस्कृति का अध्ययन और सर्वेक्षण का कार्य किया। सुप्रसिद्ध लोक कलाकार मोहन सिंह बोरा ‘रीठागाड़ी’ के सम्पर्क में आये।इसके बाद वे लगातार सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे। कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम किये। वामपंथी विचारधाराओं के कारण 1962 में चीन युद्ध के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और नौ महीने का कारावास भी झेला।जेल से छूटने के बाद अल्मोड़ा और सारे पर्वतीय क्षेत्र से निष्कासित होने के कारण इन्हें दिल्ली में रहना पड़ा। दिल्ली के ‘भारतीय कला केन्द्र’ में कार्यक्रम अधिकारी के पद पर इनकी तैनाती हुई और 1971 तक इस पद पर रहे। दिल्ली में पर्वतीय क्षेत्र के लोक कलाकारों के सहयोग से 1968 में ‘पर्वतीय कला केन्द्र’ की स्थापना की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में 1992 तक प्रवक्ता और एसोसियेट प्रोफेसर भी रहे। विश्व स्तर पर गढ़्वाल और कुमाऊं की लोक कला की पहचान कराने में उप्रेती जी का विशिष्ट योगदान रहा है। अपने रंगमंचीय जीवन में इन्होंने लगभग बाइस देशों की यात्रा की और वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। अल्जीरिया, सीरिया, जार्डन, रोम आदि देशों की यात्राएं की और वहां पर सांस्कृतिक कलाकारों के साथ पर्वतीय लोक संस्कृति को प्रचारित किया। पर्वतीय लोक कलाकारों के साथ 1988 में चीन, थाईलैण्ड और उत्तरी कोरिया का भ्रमण किया। ‘श्रीराम कला केन्द्र’ के कलाकारों के साथ लगभग बीस देशों का भ्रमण किया। सिक्किम के राजा नाम्ग्याल ने इन्हें राज्य में सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने के लिये विशेष रुप से आमंत्रित किया।अल्मोड़ा में अपने अनन्य सहयोगियों ब्रजेन्द्र लाल शाह, बांके लाल शाह, सुरेन्द्र मेहता, तारा दत्त सती, लेनिन पन्त और गोवर्धन तिवाड़ी के साथ मिलकर ‘लोक कलाकार संघ’ की स्थापना की। अपने रंगमंचीय जीवन में उप्रेती जी ने पर्वतीय क्षेत्रों के लगभग डेढ़ हजार कलाकारों को प्रशिक्षित किया और 1200 के करीब सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। राजुला-मालूशाही, रसिक-रमौल, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, अजुवा-बफौल जैसी तेरह लोक कथाओं और विश्व की सबसे बड़ी गायी जाने वाली गाथा ‘रामलीला’ का पहाड़ी बोलियों (कुमाउनी और गढ़वाली) में अनुवाद कर मंच निर्देशन कर प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त हिन्दी और संस्कृत में मेघदूत और इन्द्रसभा, गोरी-धन्ना का हिन्दी में मंचीय निर्देशन किया।मोहन उप्रेती जी भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग की लोक नृत्य समिति के विशेषज्ञ सदस्य रहे, हिमालय की सांस्कृतिक धरोहर के एक्सपर्ट सदस्य और भारतीय सांस्कृतिक परिषद के भी विशिष्ट सदस्य रहे। देश की प्रमुख नाट्य मंडलियों से इनका सीधा संपर्क रहा, कई नाटकों के संगीतकार रहे, इनमें प्रमुख हैं- घासीराम कोतवाल, अली बाबा, उत्तर रामचरित्त, मशरिकी हूर और अमीर खुसरो।लोक संस्कृति को मंचीय माध्यम से अभिनव रूप में प्रस्तुत करने, संगीत निर्देशन और रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये इन्हें साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा 1962 में पुरस्कृत किया गया। संगीत निर्देशन पर उन्हें 1981 में भारतीय नाट्य संघ ने पुरस्कृत किया। लोक नृत्यों के लिये संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1985 में पुरस्कृत हुये। हिन्दी संस्थान उप्र सरकार नें उन्हें सुमित्रानन्दन पन्त पुरस्कार देकर सम्मानित किया। वे जोर्डन में आयोजित समारोह में प्रसिद्ध गोल्डन बियर पुरस्कार से भी पुरस्कृत हुये। इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन (इप्टा) के भी सदय रहे। सलिल चौधरी, उमर शेख और बलराज साहनी के साथ मिलकर कई कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये।भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ‘बेडू बॉय’ मोहन उप्रेती की आज पुण्यतिथि है. स्वर्गीय मोहन उप्रेती की 25 वी पुण्यतिथि पर उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर कुमाउनी बैठकी होली के कलाकार व संस्थाए सम्मानित की जाएँगी। मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवं विज्ञानं शोध समिति के तत्वावधान में मोहन उप्रेती की 25 वी पुण्यतिथि पर 6 जून को नगर पालिका सभागार में बैठकी होली गायन पर कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है।इस कार्यक्रम में बैठकी होली गायन परंपरा के कलाकारों व इस परंपरा के संरक्षण व प्रचार प्रसार में कार्य कर रही संस्थाओ को उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया। संस्था के अध्यक्ष ने बताया की मोहन उप्रेती की 25वी पुण्यतिथि पर इस वर्ष अलग अलग विद्याओं पर कार्यक्रम आयोजित किये जाने का निर्णय लिया गया है आने वाले दिनों मे लोक संगीत , शास्त्रीय संगीत ,लोक शिल्प, लोक विज्ञानं , चित्रकला ,कृषि पर वर्कशॉप आदि कार्यक्र्म किये गये।
लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।