पिथौरागढ, 27 दिसंबर 2023
पुस्तक समीक्षा (कविता)
न उस राजा के कारण
न पारदर्शी पोशाक के कारण
न उस पोशाक के दर्जी के कारण
न चापलूस मंत्रियों के कारण
न डरपोक दरबारियों के कारण
कहानी अमर हुई बस
उस बच्चे के कारण
जिसने कहा – राजा नंगा है।
जिस किताब की ऐसी पहली ही कविता आपको अपने मोहपाश में बांध दे। भला, फिर ऐसा कौन पाठक होगा जो पूरे संग्रह को पढ़ने से स्वयं को रोक पाएगा। जी हां, बात हो रही है कवि महेश पुनेठा के कविता संग्रह ‘अब पहुंची हो तुम’। आपको पहली कविता पढ़ने भर की ही देरी है। उसके बाद आप जीवन के कई पलों के अहसास को जीते चले जाएंगे। संग्रह में कुल 55 कविताएं संकलित हैं जो मानव संघर्ष, शोषण, पीड़ा, खुशी, दु:ख, बाजारवाद, पर्यावरणीय व सामाजिक चिंताओं के साथ रिश्तों का ताना-बाना लिए जीवन के हर पहलु को संभाले पाठक को अपने साथ लिए चलती हैं।
संग्रह की दूसरी कविता ‘उसका लिखना’ छोटी लेकिन गहरे अर्थ में रची-बसी है। कवि मानता है कि औरत के लिए सुख के पलों को खोजना बहुत मुश्किल है लेकिन वह दुख की एक लंबी फेहरिस्त आराम से बना सकती है। कविता ‘नचिकेता’ हमें सदियों की परंपरा से वर्तमान तक उसी अंदाज में जोड़ती है। कवि जानता है कि प्रश्न करने वाले हमेशा सबकी निगाहों में रहते हैं जैसे कि नचिकेता। किताब के शीर्षक की पंक्तियों को लिए कविता ‘गांव में सड़क’ हमारे राजनीतिक और सरकारी तंत्र की पोल खोलती है। यह छोटी-सी कविता अपने भीतर एक बड़ी त्रासदी व चुनौतियों को छुपाए हुए है।
‘पता नहीं’ में कवि औरत की कार्यकुशलता को बटन के बहाने गहरे तक समझते हैं। आम जनता कितनी भोली है। जरुरत की सुविधाओं के लिए तरसती है लेकिन गाहे-बगाहे राजनीतिक षड़यंत्र के चंगुल में फंस ही जाती है और नेताओं की हां में हां मिलाते हुए अपना बहुत बड़ा नुकसान कर बैठती है। कुछ यही कहानी हमें ‘गांव में मंदिर’ कविता सुनाती है।
संग्रह की सबसे लंबी कविता है ‘मेरी रसोई-मेरा देश’। 37 हिस्सों में बंटी यह कविता रसोई के बहाने कई घटनाओं व बातों के जरिए परत दर परत कई खुलासे, बहुत से मनोभावों संग रिश्तों की ताल लिए हर घर की रसोई में रोजाना की परेशानियों, प्रेम, उलझनों आदि का खाक़ा बुने ऐसा जान पड़ता है जैसे दुनिया भर की रसोईघर की हलचलें कवि ने नजदीक से महसूस की हों। कवि कई बातों को सीधे-सीधे न कहकर अप्रत्यक्ष रूप में कह एक जोरदार तंज कसते हैं। ‘हम तुम्हारा भला चाहते हैं’ कविता में कवि राजनीतिज्ञों पर करारा व्यंग्य कसते हुए उनके भले का हश्र सुनाते हैं। चाहे कुछ भी हो जाए। हम कितने भी उन्नत हो लें। कितनी ही मशीनरी हमारी रसोई में कब्जा कर ले। ‘नहीं बदले’ कविता बताती है कि रसोई का असली श्रृंगार वे दो हाथ हैं जो रसोई होने के सही मायने समझाते हैं।
‘कुएं के भीतर कुएं’ में कवि समाज की संकीर्ण सोच पर करारा तंज कसता है। कविता ‘ठिठकी स्मृतियां’ बचपन को बहुत ही मिठास के साथ याद करने का एक बहाना है। कविता ‘लोक’ में कवि लोक को ही अपना सब कुछ मान रहा है। मदद के लिए उठे हाथों का न कोई मोल है और न ही कोई तोल। इसे बस भीतर ही भीतर गहरे तक महसूस किया जा सकता है बस। ‘छोटी बात नहीं’ कविता इसका ही मर्म है। किसान हमेशा से ही पिसता आया है, पिस रहा है। यह एक बड़ी त्रासदी है। इसका सुंदर चित्रण है कविता ‘त्रासद’। हम अपनी मिट्टी से किसी न किसी बहाने से हमेशा जुड़े रहते हैं। बेशक, हमारा ठिकाना विश्वभर में कहीं भी ठहर जाए। हमारी संवेदनाएं मिट्टी के साथ हमें जोड़े ही रखती हैं। चाहे फिर वह बात उस घर की हो जिसे हम वर्षों पहले अकेला छोड़ आए हैं। यह हमारी परंपरा के एक सुखद हिस्से का नेतृत्व करता है। कविता ‘परंपराएं’ इसी अंश से रूबरू करवाती है। समय के साथ और विकास के साथ व्यक्ति का आचार-व्यवहार और संवेदनाओं का कमतर होना स्वभाविक-सा हो गया है। बाजारवाद के आकर्षण से कोई अछूता नहीं रह गया है। ‘चौड़ी सड़कें और तंग गलियां’ इसी की कहानी सुनाती है। ‘चायवाला’ कविता के बहाने कवि एक व्यंग्य और यथार्थ की कसक को सुनाता है।
कविता ‘जेरूसलम’ में कवि कटाक्ष करते हुए जेरुसलम को एक निर्जन भूमि की कल्पना करता है। कवि स्वयं उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके से तालुक रखता है। वह गांव के आर्थिक संकट को भलीभांति जानता है। इसी के चलते गांव से देश-विदेश में कमाने निकले लोगों के बिछोह, मिलन और फिर बिछोह की चक्करघिन्नी में घूमते गांव की मार्मिक कथा को कविता ‘पहाड़ी गांव’ में संवेदनात्मक तरीके से जोड़ता है। कवि की संवेदना इस बात से ही पता चलती है कि वह सर्द ऋतु में परीक्षा के लिए परीक्षा कक्ष के बाहर खुलवाए गए बच्चों के जूतों को देख सिहर उठता है। अंदर बैठे परीक्षार्थियों के ठंडे होते पैरों की परेशानी से वह कांप उठता है। कवि परीक्षा उड़नदस्तों पर करारा व्यंग्य कसता है। कवि इन लोगों के पांव में सजे जूतों व उनकी निरंतर बातचीत के शोर से परीक्षार्थियों की परेशानी का यथार्थपूर्ण चित्रण करता है। कविता ‘मां की बीमारी में’ बहुत ही संवेदनशील व मार्मिकता लिए है।
लेखन से जीवन में रचनामकता आ जाए इससे बेहतर शब्दों की ताकत और क्या होगी? ‘छुपाना और उघाड़ना’ कविता में कवि यही लक्ष्य साधे हुए है। कविता ‘कितना खतरनाक है’ मजदूर के उस बच्चे के जरिए उसके हालात, संघर्ष, पीड़ाओं को आत्मसात करने की आदत, उसकी थकान, चोट व चुभन को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढ़ोने का डर कवि को सता रहा है। यह सच में बहुत ही त्रासद है, खतरनाक है, एक बेहतर भविष्य रहित है। कविता का अंश देखिए-
देख रहा हूं
धीरे-धीरे
कैसे बदलता जा रहा है उसका संबंध
चोट
चुभन
आवाज से
बिलकुल अपने मां-बाप की तरह
कितना खतरनाक है इस तरह
चोट-चुभन-आवाज का
पीढ़ी दर पीढ़ी आदत में ढल जाना।
‘दीपावली’ कविता में कवि कई पक्ष संग लिए उस घटना को याद करता है जो उसके मानसपटल पर हमेशा के लिए अंकित हो चुकी है। कवि अपने भीतर न जाने कितनी ही संवेदनाओं की बाढ़ समेटे हुए है। मोमबत्ती का गलना कवि को उस बच्चे के आंसू की याद दिलाता है। बहुत सुंदर कविता है यह। कई बार हम गाहे-बगाहे या मजबूरीवश उन यादों को स्मरण कर बैठते हैं और बचा लेते हैं एक पूरा इतिहास, एक पूरा घटनाक्रम। ‘प्रार्थना’ में कवि प्रार्थना और विपत्ति को इसी संदर्भ में देखता है। कविता ‘उसके पास पति नहीं है’ बहुत मार्मिक है। कविता ‘पहाड़ का जीवन’ पहाड़ के कई संघर्ष, परेशानियों, उसके परिश्रम और गांव से शहर मजदूरी करने गए लोगों के इंतजार में टूटते-जुड़ते जनमानस का पूरा ख़ाका खींचती है।
‘तुम्हारी तरह होना चाहता हूं’ कविता मानव मन के स्वभाव, उसके व्यवहार का ताना-बाना बुने कवि की उस कसक, उस घुटन को बयान करती है जहां कवि भी खुल जाना चाहता है बिना किसी पूर्व योजना के। सहज होकर अपनी बात शुरू करना चाहता है, अपनी पत्नी की तरह। बहुत प्यारी कविता है यह। ‘रद्दी की छंटनी’ कविता सच में व्यक्ति को अपने पिछले समय के सफर पर लेकर चली जाती है, जहां बहुत-सी मीठी-कड़वी, प्यारी-दुलारी, मासूम यादें उसका इंतजार कर रही हैं। यह पिछले समय में लौटना जहां हमारी आंखें नम करता है वहीं हमें आश्चर्य और खुशी से भी सराबोर कर देता है। दरअसल, यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है परंतु सिर्फ संवेदनशील लोगों के लिए ही। यही इस कविता का राग है। कविता ‘लहलहाती किताबें’ में कवि किताबें बांचने, पढ़ने और गहरे तक उतरने वाले पाठकों के अंतर को बड़ी सहजता से समझाता है।
‘अथ पंचेश्वरी घाटी कथा’ पंचेश्वर की कई संवेदनाओं को अपने में समेटे हुए है। ऐसे कई प्रोजेक्ट हैं जो मानव को अपनी जमीन से छिटक रहे हैं। अपनी जमीन से यह छिटकन एक परंपरा, एक संस्कृति, एक समाज, एक अटूट रिश्ते व कई संवेदनाओं के बिखराव के घाव के गवाह बनती है, जो कभी भरे नहीं जा सकते। ‘ओड़ा का पत्थर’ कविता अपने भीतर बहुत से गहरे घाव लिए हुए एक गहरी कविता है। ओड़ा का पत्थर सच में कई रिश्तों की नींव को तोड़ने, उन छोटी-बड़ी खुशियों को भूल जाने का बड़ा सबब बनता है। एक बानगी देखिए-
बहुत बाद में
गाढ़ा जाता है खेत के बीचोबीच
लेकिन
बहुत पहले
पड़ जाती है नींव इसकी
दिलों के बीच
जैसे दिलों की खाईयां
उभर आती हों
एक पत्थर की शक्ल में
फिर भी हमेशा याद दिलाता है यह
कभी सगे रहे थे
इसके दोनों ओर के हिस्सों के मलिक।
विश्वभर ने लॉकडाउन के उस भयानक समय को झेला है। निसंदेह, कवि ने भी। उस त्रासद और पीड़ादायक समय के कई पक्षों पर मजदूर के बहाने उसकी संवेदनाओं, पीड़ाओं, जीवन की जद्दोजहद, अचानक पनपे इस कोहराम से मिली टूटन की बात करती है कविता ‘लॉकडाउन में मजदूर’। आज भी दुनिया भर में रोज़ाना लाखों बच्चे भुखमरी का शिकार होते हैं। ऐसे ही बच्चों की दास्तान सुनाती है कविता ‘संतुलित आहार’। कवि ने इस संग्रह में बहुत से स्थानीय बोली के शब्दों को अपनी कविताओं में शामिल किया है। कविता ‘खिनुवा’, खिनुवा पेड़ की विशेषता की बात उसके महत्त्व को अलग ही अंदाज में सुनाती है।
गुलामी की मानसिकता की सदियों की जकड़न, उसकी परंपरागत सिंचाई आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी वर्तमान के इस दौर तक चली आई है। बस! फर्क इतना भर रहा गया है कि जो मानक हमें गुलामी की जंजीरों में जकड़ने वालों ने सौंपे थे, हम यथावत उन्हें अपने ही समाज, अपने ही लोगों पर उससे भी खराब नियती के साथ उंडेलते जा रहे हैं। यही सब बातें कवि सूक्ष्मता से महसूस करता है, मनन करता है और कहता है- ‘तो हम कहां आजाद हैं!’ संग्रह की यह अंतिम कविता ‘मानक’ हमारे समाज पर एक करारा व्यंग्य है।
महेश पुनेठा लोक की चिंताओं के प्रति बड़े सजग हैं। उनकी ये कविताएं इन्हीं चिंताओं से घिरी पाठक को इनके करीब ले जाती हैं, उसे अपने पास बिठाती हैं, उसका हाल-चाल पूछती हैं, सारी बातें किस्से, कहानियों व घटनाओं संग उनके यथार्थ की बात सुनाती हैं, उसे मानव के गलत-सही निर्णयों, वादों, विश्वास-धोखे व योजनाओं का मनन करवाती हैं, गंभीरता संग प्यार से अपनी बात बताती हैं और फिर उसे उसके निर्णय पर छोड़ देती हैं। कविता में इस्तेमाल स्थानीय बोली के शब्द पाठक को कविता की पृष्ठभूमि के साथ करीब से जोड़ते हैं। 124 पृष्ठों में सजी सभी कविताएं बड़ी ही सरलता व सहजता में रची गहरे तक मार करती हैं। कविता प्रेमियों के लिए यह संग्रह एक नई ताज़गी व शिल्प सौंदर्य से सराबोर है। कवि महेश पुनेठा जी को इस बेहतर संग्रह के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
संग्रह- अब पंहुची हो तुम कवि- महेश चंद्र पुनेठा
प्रकाशक- समय साक्ष्य, 15, फालतू लाइन, देहरादून-248001
मूल्य- 125 रूपए प्रकाशन वर्ष- 2021
समीक्षक
-पवन चौहान
गांवव तथा डाकघर-महादेव, तहसील-सुन्दर नगर, जिला-मण्डी (हि0 प्र0) -175018
मो०- 94185 82242, 98054 02242 Email- chauhanpawan78@gmail.com