य़े वादियां
य़े फिजांय़े
य़े सुंदर पहाड़ियाँ
य़े शीतल पवनें
आकर्षक ढालदार
सीढ़ीदार खेत
य़े हंसते खलियान
अब तुम्हें बुलाना चाहते नहीं
क्योंकि तुम आते हो तो
अपने रसूख के दम पर
योजनाएं स्वीकृति करके
फिर लौट जाते हो दिल्ली दून
…….और यहाँ छूट जाती है
य़े आधुनिक विकास क़ी दरारें….
चीखते चिल्लाते लोग
सर्द ठंड में ठिठुरते बच्चे
बूढ़ी दादी के आंशु..
मजबूर है रोदन के लिऐ
जिम्मेदारियों बोझ से दबे पिता
बस……
तुम! तुम फिर ना आना!
तुम देते हो घाव गहरे
कभी टिहरी के नाम से
तो कभी जोशीमठ के ..
बस विकास भी आया तब
पलायन हो गए जब सब के सब
विकास ऊपर और लोग नीचे
आपदाएं ऊपर लोग दब गए नीचे
रोड़ ऊपर, शिक्षा नीचे
ट्रक ऊपर, कारें नीचे
जरा! … कल्पना करना कि
दूर पहाड़ के गाँव में रहती
वो बुढ़िया…..
वो करती है इंतजार
केवल आने क़ा
अपनी मृत्य और अपने बच्चे क़ा ……
और इसी कड़ी में जुड़ते
चले जाते हैं, पहाड़ों के पहाड़ जैसे सवाल
और उधर देहरादून और दिल्ली में
लंबी लंबी कतारें लगने लगती है
मेरु_गाँव फिल्म क़ो देखने
देशी दुनियां में,पहाड़ी लोग
लोग रोते सिसकते बाहर आते है
सिनेमाघरों से ….
अतीत क़ो याद करते हुऐ…..
कुछ तो रिक्तता है इस
पूरी कहानी में,
जिसको भरना ही होगा
भविष्य के सुनहरे आँचल में
क्या? लहलायेंगी फिर से झंगौरे क़ी फसल
इन बंजर से खेत खलियानों में
क्या? आएगी वो बसंत बहारें
फिर से #नेगी जी के ख्यालों में
क्या? सृजन होगी फिर से कुछ
अमिट रचनाएँ!
पुनर्जीवित करने पहाड़ क़ी संस्कृति क़ो….
लेखक